मआरिफत का आसमान है बायज़ीदे बुस्तामी:हाफिज़ फ़ैसल जाफ़री





कानपुर:हज़रते शैख़ अबू यज़ीद तैफूर बिन ईसा बुस्तामी रजि अल्लाहु अन्हु जो मअरिफत का आस्मान और सोहबते इलाही की कश्ती हैं, इनका शुमार अकाबिर मशाएख़ में होता है, आपका हाल बुलंद और शान बड़ी ऊँची है

आपका अस्ल नाम बा यज़ीद नहीं बल्कि तैफूर है, आपका लक़ब सय्यदुत ताएफा है

ईरान के एक शहर बुस्ताम में आपकी विलादत 134 हिजरी में हुई

बड़े ही इज़्ज़त दार और मुत्तक़ी घराने से तअल्लुक़ रखने वाले, आमिले शरीअत, साहिबे तरीक़त और इमामे तसव्वुफ हैं

आपके फज़ाएल को बयान करते हुए ख़्वाजा जुनैदे बग़दादी रजि अल्लाहु अन्हु इरशाद फरमाते हैं कि सूफिया के नज़दीक बा यज़ीद को वही हैसियत हासिल है जो फिरिश्तों के दरमियान हज़रते जिब्रील अलैहिस्सलाम को हासिल है, तमाम औलिया की जहाँ पर इंतिहा होती है वहाँ से आपका आग़ाज़ होता है, जब आपके इब्तिदा का आलम यह है तो इंतिहा कौन जान सकता है इन ख्यालात का इज़हार तन्ज़ीम बरेलवी उलमा-ए-अहले सुन्नत के सदर हाफिज़ व क़ारी सैयद मोहम्मद फ़ैसल जाफ़री ने किया उन्होंने आगे कहा कि 

आपके बाप दादा मजूसी थे, बाद में दाखिले इस्लाम हुए, आपसे पहले तसव्वुफ के हक़ाएक़ पर किसी को इतना उबूर (बुलंदी) हासिल ना थी, आपने हर हाल में इल्म से मोहब्बत की और शरीअत का एहतिराम किया, सारी जिन्दगी कोई एैसा काम ना किया जो शरीअते पाक के खिलाफ हो

इब्तिदा में आपका ज़्यादा वक़्त मुजाहिदे व रियाज़त में गुज़रता था और इस सिलसिले में ख़ुद आपने यह इरशाद फरमाया,, मैंने 3 साल मुजाहिदा किया और इस दौरान इल्म और उसकी पैरवी करने से ज़्यादा मुश्किल कोई चीज़ महसूस ना की

और इसी इल्म के सबब आपकी इंकिसारी का हाल यह हो चुका था कि एक मौक़े पर एक शख़्स आपसे मिलने आया जो आपको जानता नहीं था, आपसे ही पूछा कि हज़रते पीर ख़्वाजा बा यज़ीद कहाँ मिलेंगे?

आपने फरमाया मैं भी 30 साल से एैसे शख़्स को तलाश कर रहा हूँ जो हज़रत, पीर और ख़्वाजा एक साथ हो, वह शख़्स आपसे हट कर दूसरे के पास गया और यही सवाल किया तो उसने जवाब दिया कि जिससे तुम अभी पूछ कर आए हो वही हज़रते पीर ख़्वाजा बा यज़ीद हैं

वह शख़्स फिर आपके पास आया और बोला कि फलाँ कहता है कि आप ही बा यज़ीद हो लेकिन आप इंकार करते हो?

तो आपने फरमाया तूने सच कहा! मैं बा यज़ीद हूँ लेकिन इतना भी बुलंद नहीं कि हज़रत, पीर और ख़्वाजा जैसी अज़ीम सिफतें मुझमें दाखिल हो जाएँ

आपका यह फरमाना बतौरे इंकिसार है जब्कि आज हम देखते हैं कि अगर किसी पीर या आलिम के हक़ में इस तरह के अल्क़ाब ना इस्तिमाल किये जाएँ तो वह हमसे नाराज़ हो जाते हैं और अपने नामों के आगे एैसे एैसे अल्क़ाब के ढ़ेर लगा देते हैं जिसके वह अहल तक नहीं होते (इल्ला माशा अल्लाह) लिहाज़ा हमारे बड़ों को इससे कुछ सबक़ हासिल करना चाहिये

तन्ज़ीम के मीडिया इंचार्ज मौलाना मोहम्मद हस्सान क़ादरी ने खिराज पेश करते हुए कहा कि  एक मौक़े पर हज़रते बा यज़ीद अपने कुछ मुरीदों के साथ सफर फरमा रहे थे कि राह में एक दरिया पड़ा और आपने फरमाया कि थोड़ा रुको ताकि मैं अपना कुर्ता धो लूँ, मुरीदीन ने अर्ज़ की हुज़ूर हमारे होते हुए आप यह काम करें तो हमारे लिये शर्म की बात है

आपने फरमाया नहीं! मेरा काम है मुझे ही करने दो

आपने अपना कुर्ता धोया और एक मुरीद के बहुत इसरार पर उसे सुखाने को दे दिया, उस मुरीद ने वहाँ लगी एक रस्सी पर आपका कुर्ता टाँग दिया तो आपने फरनाया कि जिस शख़्स ने इस रस्सी को बाँधा है क्या तुमने उससे इजाज़त ली?

अर्ज़ की नहीं हुज़ूर, फरमाया वहाँ से हटा कर कही और डालो, तो  मुरीद ने ज़मीन पर उगी घास पर कुर्ते को फैला दिया, आपने देख कर फरमाया कि तुमने इसे घास पर फैला दिया और अगर इसी बीच कोई चरने वाला जानवर आ गया और शिकन सेर ना हो सका तो इसका जवाब रब के हुज़ूर मैं क्या दूँगा?

मुरीद ने पूछा हुज़ूर फिर आप ही बताएँ कि कहाँ फैलाऊँ?

आपने फरमाया कि कुर्ता मुझे दो और वह कुर्ता लेकर आपने पहन लिया और फरमाया कि इसके सूखने की इससे अच्छी जगह और कोई नहीं आपकी जिन्दगी का हर हर गोशा ख़ौफे ख़ुदा का दर्स और मोहब्बते रसूल का जाम पिलाता था

आप जहाँ सरापा इंकिसार हैं वहीं सरापा करामत भी हैं

सारी जिन्दगी दीने पाक की खिदमत करते हुए गुज़ार दी और 15 शाबान या 14 रमज़ान 249 हिजरी को इस दुनिया से रहलत फरमा गए, आपका मज़ारे मुबारक बुस्ताम (ईरान) में है जहाँ से आज भी आपके चाहने वालों के लिये फैज़ की हवाएँ चल कर उनको शराबोर कर रही हैं

अल्लाह करीम आपकी पाकीज़ा तुरबत पर अपने ख़ुसूसी करम की बारिशें बरसाए