कोरोना की वजह से रमज़ान रौनकों से खाली रहा:मौलाना हस्सान क़ादरी
कानपुर:तन्ज़ीम बरेलवी उलमा-ए-अहले सुन्नत के सदर हाफिज़ व क़ारी सैयद मोहम्मद फ़ैसल जाफ़री ने कहा कि ईदुल फित्र यक़ीनन बड़ी ख़ुशी और मसर्रत का दिन है, इस दिन का मुसलमान बड़ी हसरत से इंतिज़ार करता है और जब यह दिन आता है तो लोग ख़ुशी में फूले नहीं समाते
ईद की अस्ल ख़ुशी बच्चों व औरतों के बीच ज़्यादा पाई जाती है, मर्द तो नए कपड़े बनवाए ना बनवाए लेकिन औरतों और बच्चों को इस मुतअल्लिक़ समझा पाना एक मुश्किल काम है
ईद की अस्ल बहारों का पता रमज़ान की रौनक़ें और लज़्ज़तें हासिल करने के बाद लगता है लेकिन इस साल कोरोना की वजह से दुनिया में लोग इतना परेशान हो गए कि ना तो हमें शबे बरअत नसीब हो सकी ना ही माहे रमज़ान की बहारें
अगर लोग ईद के मुंतजिर रहते हैं तो अल्लाह के नेक बंदे एैसी रातों (शबे बरअत व शबे क़द्र) और दिनों (जैसे माहे रमज़ान) का साल भर इंतिज़ार किया करते हैं
मगर अफसोस कि इस साल इनमें सिवाए माहे रमज़ान (जो कि हर साल से बिलकुल अलग और रौनकों से ख़ाली रहा) के रोज़ों के हमें कुछ नसीब ना हुआ
तन्ज़ीम के मीडिया इंचार्ज मौलाना मोहम्मद हस्सान क़ादरी ने कहा कि अब चूँकि रमज़ान जाने को और ईद आने को है, और इसी के चलते लॉकडाउन में भी काफी सहूलतें मिली हैं तो लोग (ख़ास तौर पर औरतें) बाज़ारों में बिना दूरी बनाए धड़ल्ले से ईद की ख़रीदारियों में मसरूफ हैं
जब्कि इस साल तो हमें ईद उसी सादगी के साथ गुज़ारनी चाहिये जिस सादगी के साथ लॉकडाउन के हर हर दिन गुज़ारे हैं
यह पहली एैसी ईद होगी जिसमें एक ग़ैरत मंद मुसलमान को नए कपड़े पहनते हुए ख़ुशी नहीं बल्कि शर्मिंदगी होगी, लेकिन कुछ एैसे भी लोग हैं जिन्हें शायद आज भी इंसानियत का पास व लिहाज़ नहीं है कि ना जाने कितने लोगों को इस माहमारी ने, कितने लोगों को भूक ने और कितने ही लोगों को उनके घर बार के दूर होने के बोझ ने मार डाला
आखिर वह सब भी हमारे अपने ही हैं और हमारा मज़हब भी हमें एक दूसरे की ख़ुशियों के साथ ग़म बांटने का हुक्म देता है फिर भी कुछ लोग इससे ग़ाफिल हैं और ईद की तय्यारियों में मश्ग़ूल हैं
मुसलमानों! कुछ तो अपने प्यारे नबी अलैहिस्सलाम के दीन का लिहाज़ रखो, आँखें ना खुली हों तो खोल लो कि भूक ने तुम्हारे बच्चे की जान ली होती तो क्या ईद मनाते?
माहमारी ने तुम्हारे अपनों को निगला होता तो क्या ईद मनाते?
ट्रेन से तुम्हारा शौहर कटा होता तो ईद मनाती?
बाहर तुम्हारा बाप फंसा होता तो क्या ईद मनाती?
यह वह सवाल हैं जो ग़ैरत मंद इंसान की रूह तक को झिंझोड़ कर रख देंगे और जो नसीहत ही ना हासिल करना चाहे उसका अल्लाह ही मददगार
जो लोग मेरी बात से मुत्तफिक़ हैं उनको चाहिये कि ईद की कोई ख़रीदारी ना करें, जो पैसे पास हैं उन्हें संभाल कर रखें और उसी पैसो से कुछ पैसा अपनी हैसियत के मुताबिक किसी ग़रीब की मदद की जा सके तो आगे बढ़ें
मदारिस को चंदा देकर उसे मज़बूत करें और सादा कपड़ों में नमाज़े ईद (अगर हुकूमत की जानिब से इसकी इजाज़त मिले तो) अदा करें वरना अपने घरों में 2 रकअत शुक्राना इस बात का अदा करें कि अल्लाह ने हमें इस माहमारी के साथ भूक और कहीं फंसे होने जैसी अज़ीम बला से भी दूर रखा
अगर एैसा करेंगे तो अल्लाह करीम की रहमत से उम्मीद है कि वह अपने बंदों की इस अज़ीम क़ुर्बानी को फरामोश नहीं फरमाएगा
दुनिया में मिले ना मिले लेकिन वहाँ जहाँ किसी का कोई पुरसाने हाल ना होगा (आखिरत) ज़रूर हमारी मुश्किलों को आसान फरमाएगा और उसके करम से कुछ बईद नहीं कि इसी अच्छे और नेक काम की वजह से वह हमारी मग़फिरत फरमा दे
मौलाए क़दीर हमें नेक समझ और आमाले हस्ना की तौफीक़ बख़्शे आमीन!